भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लौट आ / विशाखा विधु

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:22, 2 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विशाखा विधु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पता है
कितनी थक गई हूँ
लौट आ
होंठों की मुस्कान भी नहीं छिपा पाती
मेरे माथे पर पड़ी सलवटें
तेरी फिक्र में....।
जैसे जाकर
लौटा नहीं रथ
ब्रज की धरा पर...।
जैसे छूट गयी
 हरियल की लकड़ी
जैसे न आये हो राम
शबरी का सा इन्तज़ार
लौट आ..
बस लौट आ।