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कुछ जिंदगियां / मनोज अहसास

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कुछ जिंदगियां होती हैं
सीलन भरे अंधेरे कमरों की तरह
जिनके खिड़की दरवाज़े
मुद्दत से बंद हैं
वहां कोई भी नही जाता
वहाँ घूमते हैं
कुंठाओं के कॉकरोच
उदासियों की छिपकलियां
वेदनाओं की चीटियां
और
कश्मकश की मकड़ियां
जो बुनती रहती हैं सदा
एक जाल
जिससे
कभी हल्की सी भी दरार होने पर
दरवाजे में
अगर आ जाये
कोई तितली
उल्लास की
तो
उलझकर
घुटकर
मर जाये
कुछ जिंदगियां.....
धीरे धीरे
ये सब चीज़े मिलकर
निगल जाती हैं
नैतिकता का प्लास्टर
उखड़ जाता है संस्कारों का फर्श
गिर जाती है
उद्दात की छत
अफसोस
कुछ खूबसूरत हो सकने वाली जिंदगियां.....