तृप्ति का हठ हाशिये पर / अवनीश त्रिपाठी
धुंध की
चादर लपेटे
धूप अलसाई हुई,
बात लेकिन
हो रही है
ताप के विस्तार की।।
कृत्य को संवेग तय करने लगा
संकुचन परिणाम ही गढ़ने लगा,
गिद्धवादी आचरण की रूढ़ियां
ढो रहीं कितने समय से पीढियां।
भोजपत्रों
पर कई अनुबंध
अब तक हैं अधूरे
पृष्ठ पर
बातें हुईं बस
अर्थ के आधार की।।
भूख बैठी प्यास की लेकर व्यथा
क्या सुनाए सत्य की झूठी कथा
किस सनातन सत्य से संवाद हो
क्लीवता के कर्म पर परिवाद हो।
ठोस होता
ही गया जब
तृप्ति का हठ हाशिये पर,
रोटियां भी
बात करती हैं
महज़ व्यापार की।।
हीन मिथ्याएं उबासी ले रहीं
तार्किक क्षमता उभरती ही नहीं
अनगिनत विषदंत चुभते जा रहे
आवरण मुख पर, अनेकों कहकहे।
चुप्पियों
ने मर्म सारा
लिख दिया जब चिट्ठियों में,
अक्षरों
को याद आई
शक्ति के संचार की।।