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मन की मनमानी में / अंकित काव्यांश
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तन नौका में
सवार मन की मनमानी में।
स्वप्न हो गये नाविक जीवन के पानी में।
मन कभी
सुझाता है डूब जाऐं भँवरों में
कहता है गहराई में मोती पाना है।
या कभी
सुझाता है पार चलें जल्दी से
रेत के धरातल पर रेत को बिछाना है।
रेतीले तट पर
जो मोती लुटवाता है,
ऐसा क्या होगा उस सीप की कहानी में?
दुखवाही
धारा में सुखवाही कछुए से
पानी के पार मिलो बस इतना कहते हैं।
अक्सर यह
देखा है बेकाबू लहरों में
बड़े बड़े नाविक भी कितना कुछ सहते हैं!
काल-मछेरा आएगा किसी बहाने से
टूटी पतवार लिए जाएगा निशानी में।