भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाने क्यों शहर बहुत दूर है / धनंजय सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:09, 11 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धनंजय सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने क्यों शहर बहुत दूर है।

सड़कों ने हम-तुम को जोड़ दिया
भीड़-भरे विस्तृत चौराहों से,
दूकानें चकभक-सी देख रहीं
नियौन ट्यूब की सजग निग़ाहों से।

जैसे कुछ भेद तो ज़रूर है।

परिचय के घेरे में क़ैद हुए
घने बहुत घने भीड़ के वन में’
अजनबीपन को झुठलाते हैं
शायद कुछ देर है विसर्जन में।

थककर हर श्वास हुई चूर है।

टूटती टहनियों ने ले लिया
जीवन के मृग को घेराव में,
रास्ते तटस्थ हो गए हैं सब
कौन भला मरहम दे घाव में।

कोलाहल हर दिशि भरपूर है।

नीले सियारों ने बाँट दीं
जंगल में कुछ मीठी गोलियाँ,
प्रश्नों की झाड़ियाँ उगीं
गूँजेंगी कब तक ये बोलियाँ,

सूरज भी कितना मजबूर है।