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कदम चलने लगे हैं / यतींद्रनाथ राही

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अब कोई पर्वत
न रोके
ये क़दम
चलने लगे हैं।

मंजिलों के हैं निमन्त्रण
नित नए विश्वास अविरल
बाज़ुओं में
करबटे लेने लगी है
एक हलचल
दंश जो अब तक सहे थे
स्वाभिमानी चेतना ने
घूँट आँसू के पिये थे
विवश घुटती वेदना ने
एक युग से जड़ित वे
हिम खण्ड
अब गलने लगे हैं।
मात्र सेवा मूर्ति थी
मिलता रहा
शोषण दलन ही
भाग्य भी क्या था धरा का
जो फटा उस पर गगन ही
देह की करके नुमाइश
पींजरों की श्रृखलाएँ
जो मिला अब तक
मिली हैं
बस लुभावन वंचनाएँ
मुट्ठियों में अब
सबल संकल्प कुछ
पलने लगे हैं।

अब सजावट के नहीं
हम शक्ति के प्रतिमान होंगे
थे तुम्हारी नींव के
अब
शीर्ष के सम्मान होंगे
छू सको तो
उड़ चले लो
पंख में नक्षत्र बाँधे
सिर
कभी झुकने नहीं हैं
हैं बहुत मज़बूत काँधे
चूड़ियों के हाथ कोमल
वज्र में ढलने लगे हैं।
26.6.2017