भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारे इस असमय में / राकेश रंजन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 23 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रंजन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दहशत और दरिन्दगी से भरे
हमारे इस असमय में
हो सकता है
घर लौटते वक़्त दिख जाएँ
फ़सल की तरह काटे गए
किसानों, खेतिहर मजदूरों के शव
या दिख जाएँ
बागों की तरह उजाड़े गए
सैकड़ों घर
जंगल-जैसे काटे गए
अनगिनत लोग ।

हो सकता है घर लौटूँ तो देखूँ
पिता की कटी गर्दन
भाई का छलनी-छलनी बदन
माँ की कटी छाती
चिरनिद्रा में लीन बहन निर्वसन
ख़ून और ख़ून और ख़ून इधर-उधर ।

दहशत और दरिंदगी से भरे
हमारे इस असमय में हो सकता है...
हो सकता है मैं ही न लौट पाऊँ
अपने घर।