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अपराजित / महेन्द्र भटनागर

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[4] अपराजित


हो नहीं सकती पराजित युग-जवानी !


संगठित जन-चेतना को,

नव-सृजन की कामना को,

सर्वहारा-वर्ग की युग -

युग पुरानी साधना को,

आदमी के सुख-सपन को,

शांति के आशा-भवन को,

और ऊषा की ललाई

से भरे जीवन-गगन को,

मेटने वाली सुनी है क्या कहानी ?


पैर इस्पाती कड़े जो

आँधियों से जा लड़े जो,

हिल न पाये एक पग भी

पर्वतों से दृढ़ खड़े जो,

  ...शत्रु को ललकारते हैं, 
  ...जूझते हैं, मारते हैं, 
  ...विश्व केर कर्तव्य पर जो 
  
  ...ज़िन्दगी को वारते हैं, 

कब शिथिल होती, प्रखर उनकी रवानी !


शक्ति का आह्नान करती,

प्राण में उत्साह भरती,

सुन जिसे दुर्बल मनुज की

शान से छाती उभरती,

  जो तिमिर में पथ बताती, 
  हर दिशा में गूँज जाती, 
  क्रांति का संदेश नूतन 
  जा सितारों को सुनाती, 

बंद हो सकती नहीं जन-त्राण-वाणी !

1951

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