भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक दफ़्तर के बरामदे में / रुस्तम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:35, 7 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक दफ़्तर के बरामदे में
सीढ़ियों के आगे
भला वह जानवर खड़ा था।
निश्चित ही वह स्वस्थ नहीं था
और अन्दर से सड़ रहा था
क्योंकि वह स्थान उसकी सड़ान्ध से भरा था।
वह शान्त था, चुप था, पर उसकी आँखों में अदृश्य एक पीड़ा थी
जो चोखी और घनी थी और जिसे मैंने भाँप लिया था।
यह स्पष्ट नहीं था कि कब तक उसे उस पीड़ा को सहना था,
कब उसका अन्त होना था,
कब उसे ढहना था।
मैं बरसों से स्वयं को रोक रहा था,
लेकिन उस क्षण
मैंने पहली बार
प्रकृति को श्राप दिया
जिसने जीवन को जन्म दिया था।