भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात के नौ का समय था / रुस्तम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:38, 7 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात के नौ का समय था।
शहर बत्तियों से चमचमा रहा था।
गाड़ियाँ आ रही थीं, गाड़ियाँ जा रही थीं,
गाड़ियाँ रुक रही थीं, थम रही थीं,
चिल्ल-पौं मचा रही थीं।
सड़कों पर
उनमें से
निकलने वाला धुआँ
भरा था।
और मैंने देखा कि
इस सब के बीचों-बीच
ऐन चौराहे पर
अकेला एक जानवर खड़ा था —
मनुष्यों की
भद्दी दुनिया में
सहमा हुआ एक जानवर
जिसकी आँखों में
रह-रहकर
रोशनी पड़ रही थी
और उनमें
ज़रा भी
चमक नहीं थी।