भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं बूढ़ा हो जाऊँगा / रुस्तम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:50, 7 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं बूढ़ा हो जाऊँगा।
कोई मुझसे मिलने नहीं आएगा।
सड़क पर या गली में
सब मुझसे कतरा कर निकलेंगे।
कोई मुझसे आँख नहीं मिलाएगा।
महिलाएँ सोचेंगी यह बूढ़ा कभी सुन्दर रहा होगा।
अपने स्तन वे मुझे नहीं दिखाएँगी।
मैं बूढ़ा होता जाऊँगा, और और बूढ़ा।
बुढ़ापे को गालियाँ सुनाऊँगा।
मर साले बुढ़ापे ! दफ़ा हो जा यहाँ से !
फिर एक दिन मैं घर में या अपने कमरे में
मरा हुआ पाया जाऊँगा।