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परिभाषा / संजीब कुमार बैश्य / प्रभात रंजन

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मैं नहीं चाहता कि तुम
मुझे परिभाषित करो
तुम जो मुझे
एक संख्या की तरह लेते हो,
अपनी मर्जी से जोड़ते हो,
घटा देते हो,
तुम्हें ईर्ष्या है मेरी मुस्कान से,
तुम्हें तोहफ़े में मुस्कराहट मिलेगी।

तुम जो मुझे
खलनायक बताते हो
और हँसते हो मेरे ऊपर
जल्दी ही सब हँसेंगे तुम्हारे ऊपर

तुम जो मुझे
हिन्दू, इस्लाम, सिख या ईसाई के रूप में
देखते हो,
तुम जो मेरे
नैन-नक़्श को घूरते हो,
तुम जो मुझे परिभाषित करते हो
भारतीय, विदेशी, या एक पूर्वोत्तर नागरिक के रूप में
(ओह! तुम तो वहां के लगते ही नहीं हो)

इल्तिजा है
मुझे परिभाषित करना छोड़ दो !
मुझे जीने की आज़ादी दो,
मुझे सोचने की आज़ादी दो,
मुझे साँस लेने की आज़ादी दो…