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दोहा सप्तक-06 / रंजना वर्मा
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अम्बर में करने लगे, बादल पुनः किलोल।
प्यासी धरती को लगें, मीठे घन के बोल।।
मस्तक पर शोभित करें, गुरु चरणों की धूल।
हरि की कृपा सदा मिले, समय रहे अनुकूल।।
बार बार जो खून का, करता कारोबार।
मानवता का शत्रु है, करो नहीं व्यवहार।।
पाऊँ कवि ऐसा कहाँ, समझे सब संवाद।
चुप सी अधरों पर लगी, कर डाले अनुवाद।।
गंगा मैली हो रही, फिर भी है खामोश।
पापनाशिनी सब कहें, लेकिन किस को होश।।
सहमी सहमी चाँदनी, खोया खोया चाँद।
हरी भरी धरती लगे, क्रुद्ध सिंह की माँद।।
आयी मावस की निशा, छिपा कहीं राकेश।
विकल सितारे ढूंढते, गया कौन से देश।।