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दोहा सप्तक-17 / रंजना वर्मा

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वातायन से झाँकती, नई सुबह की धूप।
बदल सकेगा क्या कभी, इस धरती का रूप।।
 
नई सुबह की कल्पना, है कितनी अभिराम।
लेखा जोखा कर रहे, बैठ सुबह अरु शाम।।
 
आधी सदी गुलाम थे, आधी सदी स्वतन्त्र।
सीख नहीं पाये मगर, अब तक शासन मन्त्र।।
 
नयनों में सपने नए, श्वांसों में मधु - गन्ध।
नई सुबह से हो गया, नया नेह - अनुबन्ध।।
 
समय क्षमा करता नहीं, लेगा स्वयम् वसूल।
दोहराते ही हम रहे, यदि फिर अपनी भूल।।
 
अब तक बीते दिन हुए, हैं पलकों में बन्द।
साँसों को महका रही, सपनों की मधु गन्ध।।
 
मिटे न श्रेष्ठ परम्परा, बिखर न जाये रीत।
परिपाटी मथ कर मिले, शिव सुंदर नवनीत।।