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दोहा सप्तक-16 / रंजना वर्मा

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विधि के पागलपन भरे, बड़े अनोखे ढंग।
टेसू खिले जमीन पर, लाल गगन का रंग।।
 
नीलम नीरज से नयन, अधरन खिले गुलाब।
पलक पृष्ठ झुक झुक पड़े, आनन खुली किताब।।
 
मुखड़े पर सरसों खिली, टेसू फूले गाल।
अधर कमल की पांखुरी, तन फूलों की डाल।।
 
दृग वातायन झाँकता, मन अबोध सुकुमार।
उर आँगन में अंकुरित, हुआ कहाँ से प्यार।।
 
सजल स्पर्श सनेह का, लाया सुखद समीर।
देह तरंगित हो उठी, ज्यों यमुना का नीर।।
 
मन समीर डोला फिरे, मिली नेह की गन्ध।
चटकिं कलियाँ देह की, टूट गये सब बन्ध।।
 
प्रियतम का पवन परस, निर्मल मन का छोर।
लो बसन्त फिर आ गया, फूल खिले चहुँ ओर।।