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दोहा सप्तक-42 / रंजना वर्मा

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पशु से भी निकृष्ट बन, करता फिरे शिकार।
कैसे फिर कर पायगा, किसी स्वजन से प्यार।।

सिंह गये शोभा गयी, हुआ कलंकित भाल।
यों मत चीता मारिये, खड़ी रहे बस खाल।।

नयी सदी की कल्पना, थी कितनी अभिराम।
लेखा जोखा कर रहे, बैठ सबेरे शाम।।

गयी सदी के साथ में, गया न मन का क्लेश।
वही गगन धरती वही, वही हमारा देश।।

खेतों में बम बो रहे, कुछ थोड़े से लोग।
नयी सदी के शीश पर, यह भी है अभियोग।।

नयी सदी की योजना, नई सदी की ओट।
बरसों सहलाते रहें, हम ये अपनी चोट।।

आश्वासन की श्रृंखला, प्यार भरे कुछ बोल।
ले कर नव युग आ गया, द्वार हृदय के खोल।।