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दोहा सप्तक-60 / रंजना वर्मा

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आग उगलती है सड़क, जले जा रहे पाँव।
धूप विकल हो ढूंढ़ती, शीतल ठंडी छाँव।।

मौसम के अनुसार ही, बदल रही है रूप।
चाह न अब पूरी करे, ठंढी ठंढी धूप।।

शीत सिराये चाँदनी, सिहराये वातास।
सूरज वैरी छिप रहा, होती धूप उदास।।

कोहरा घिरता मेघ सा, ढक लेता हर राह।
सृष्टि धुंध में खो रही, बढ़ता शीत प्रवाह।।

दृग वातायन झाँकता, मन अबोध सुकुमार।
उर आँगन में अंकुरित, हुआ कहाँ से प्यार।।

आनन पर सरसों खिली, टेसू फूले गाल।
अधर कमल की पंखुरी, तन फूलों की डाल।।

टला नहीं निज पन्थ से, हुआ नहीं गतिमान।
पी अँजुरी भर चाँदनी, तारा हुआ महान।।