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दोहा सप्तक-83 / रंजना वर्मा

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सूखी छाती भूमि की, निर्मम यथा मशान।
प्यास बुझाऊँ किस तरह, मुझे न कोई ज्ञान।।

सिर को थामे हाथ से, सोचे विवश किसान।
रूठ गये घन गगन के, कैसे उपजे धान।।

राजनीति की आड़ में, नेता होते भ्रष्ट।
कुर्सी पाने के लिये, करें देश को नष्ट।।

मुक्त कीजिये देश को, फैल रही विष बेल।
स्वार्थसिद्धि हित खेलते, राजनीति का खेल।।

संगत उसकी कीजिये, जो हो दिल के पास।
सभी परिस्थिति में सदा, बना रहे विश्वास।।

जीवन मे जिसको कभी, मिला न कोई कष्ट।
कमल कली सर - मध्य सा, हो जायेगा नष्ट।।

शाम ढली जलने लगे, घर घर सुघर प्रदीप।
पवन चला जब वेग से, बुझा गया सब दीप।।