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दोहा सप्तक-94 / रंजना वर्मा
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हुआ रंग बेरंग सब, जब से हुआ वियोग।
क्या जाने कब संग हो, जाने कब संयोग।।
ये बढ़ती दुश्वारियाँ, करती हैं बेचैन।
दर दर डोले फिर रहे, प्रेम पियासे नैन।।
मन दर्पण पर लिख गया, ऐसा रूप आ अनंग।
होली तो हो ली मगर, कभी न छूटा रंग।।
हुईं भावनाएं मुखर, जैसे सुमन - सुगन्ध।
अलियों की गुनगुन सदृश, चले बिखर मधुछंद।।
साँसें हुईं सुवासिता, खुशबू लाया वात।
पर यादों का काफ़िला,करता है आघात।।
चख चख मीठे बेर का, शबरी करे प्रबन्ध।
जात पाँत जाने नहीं, सुदृढ़ स्नेह सम्बन्ध।।
हे निष्ठुर जग है किया, तेरा क्या अपराध।
दण्ड मुझे जो दे रहा, तोड़ रहा है साध।।