द्रुपद सुता-खण्ड-07 / रंजना वर्मा
जन्म जो लिया है ऊँचे, क्षत्रियों के कुल में तो,
कर्म में भी क्षत्रियत्व, कुछ दिखलाइये।
उदर-दरी में रख, रक्त जो पिलाती रही,
आज उस जननी की, कुक्षि न लजाइये।
है जो अभिमान कुछ, वीरता या शूरता का,
कर्म कीजिये न ऐसे, राज-भय खाइये।
आज आप को शपथ, देती निज पौरुष की,
कुटिल सभा में लाज, नारी की बचाइये।। 19।।
भीरु बन बैठे हाय, वसुधा के वीर सब,
अबला अभागी किसे, विपदा सुनाऊँ मैं ?
यज्ञ की सुता मैं किन्तु, न्यारी नहीं नारियों से,
नारी की विपत्ति किस, नर को बताऊँ मैं ?
देख रही चारो ओर, दीखता न कोई ठौर,
आज किस पौरुष पे, बलि बलि जाऊँ मैं ?
दोष दूँ किसे मैं सारे, स्वजन पराये हुए,
अपना समझ किसे, अश्रु दिखलाऊँ मैं।। 20।।
बोलें धृतराष्ट्र सारे, राष्ट्र का संभाले भार,
आप राज्य राष्ट्र प्रजा, के भी इस स्वामी हैं।
मेरे पूज्य श्वसुर के, अग्रज हैं आप ही तो,
अनुचर सारे आप, ही केअनुगामीहैं।
नयन भले न रहे, श्रवण कुशल से हैं,
तात कुल आप का तो, वसुधा पे नामी है।
पूछती है अबला ये, हाथ जोड़ प्रभु कैसे,
पूत हैं कपूत ये क्यों, कुटिल औ कामी हैं।। 21।।