द्रुपद सुता-खण्ड-08 / रंजना वर्मा
कहते हैं शास्त्र कन्या, पिता के अधीन सदा,
उगती है पौधा बन, सकल विश्वास का।
मलय-पवन-जैसे, करों से हिलायी हुई,
पति-गृह जाती जैसे, झोंका निःश्वास का।
पति का सदन वही, इतना कठिन बना,
करता है क्रूर कर्म, मेरे ही विनाश का।
मान यदि मेरा गया, जायेगी तुम्हारी आन,
कौरव-सभा कलंक, होगी इतिहास का।। 22।।
सभा कौरवों की आज, कैसी असहाय हुई,
विष अपमानका है, चखरही द्रौपदी।
आज यूँ प्रिया को हार, बैठे पति मन मार,
बिलख धरा पे लोट, लोट रही द्रौपदी।
कैसी राजनीति नीति, सारी विपरीत हुई,
पीट पीट सरमार, झखरहीदौपदी।
एकवस्त्रा वस्त्रों को है, दोनों हाथों से संभाल,
अपनोंपरायोंकोपरखरहीद्रौपदी।। 23।।
लौटती धरा पे नैन, टूटती है अश्रु-माल,
छूटती जाती है डोर, धीरज की कर से।
फूट रही सिसकी औ, जाती चीर खिसकी है,
देखतेहैंबैठेसब, भूपति केडर से।
आन-मान हारे भीरु, कायर बने हैं सारे,
पशु भी भले हैंऐसे, पामरों से नर से।
विपदा तो आयी होगी, नैनों पे बहुत बार,
ऐसे कभी बरसेन, जैसेआजबरसे।। 24।।