भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-01 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:53, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन्दगानी को जो उन्वान बना लेते हैं
अपनी मुस्कान को पहचान बना लेते हैं।
कब हैं डरते वो आसमाँ में उठे अंधड़ से
सख़्तियों को ही जो सोपान बना लेते हैं।।

                         
काश्मीर करवा रहा, यों अपनी पहचान
करते पत्थरबाज नित, सैनिक का अपमान।
पैलट गन मत मारिये, करते सदा पुकार
वो करते प्रतिकार तो, प्यारी लगती जान।।

खिला गुलमुहर झूम कर, टेसू ज्यों अंगार
अमलतास करने चला, धरती का श्रृंगार।
रवि अम्बर में तप रहा, जले तवा सी भूमि
तन मन झुलसाने लगी, ऐसी चली बयार।।

देश की आन, मान रखते हैं
दुश्मनों पर कमान रखते हैं।
इसकी इज्जत सदा बचाने को
हम हथेली पे जान रखते हैं।।

मिला श्याम दिल बावरा हो गया
हमे प्यार का आसरा हो गया।
बना कृष्ण यों मेरा जानो जिगर
कि तन मन मेरा साँवरा हो गया।।