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मुक्तक-20 / रंजना वर्मा

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साँवरे तेरा सहारा मिल गया
यों लगा संसार सारा मिल गया।
आंधियों ने कर दिया बेचैन तो
डूबती नैया किनारा मिल गया।।

नहीं डायरी है यह केवल दर्पण है मेरे मन का
रखा इसी में है सहेज कर लेखा जोखा जीवन का।
सुखगुलाब इस के पन्नों में इस मे अश्कों के मोती
उलट पलट नित रहूँ फेरती मैं जीवनमाला का मनका।।

भाव रहे हैं उमड़ अनेकों जैसे ज्वार समन्दर का
जाग उठा है जैसे सोया बच्चा मेरे अंदर का।
हर पल करवट लेता जीवन रूप बदलता रहता है
जैसे मजमा लगा हुआ है जग में वक्तकलन्दर का।।

उमड़ घुमड़ चहुँ ओर, श्याम घन नभ में छाये
भ्रमर मचाये शोर, कली पर ही मण्डराये।
तितली पंख सँवार, उड़ चली धीरे धीरे
हवा बहे अति जोर, पँखुरियों को बिखराये।।

कहे प्राची सुबह से अब न यों घर से निकलना तुम
उमर आयी जवानी की जरा अब तो संभलना तुम।
हवा अच्छी नहीं है आजकल बहती जमाने मे
किसी की मीठी बातों में नहीं यों ही बहलना तुम।।