कापुरुष बैठे आज, कौरव सभा में सारे,
कर्म से उन्ही के सारी, वसुधा लजायेगी।
ऐसी विपदा में कोई, हुआ न सहायक तो,
कैसे ये अभागी  लाज, अपनी बचायेगी।
किसको पुकारे  किसे, आन की शपथ ये दे,
ये तो हैं निलज्ज इन्हें, लाज नहीं आयेगी।
खींचता दुशासन है, चीर आज बल भर,
लाज क्या सभा में बस, द्रौपदी की जायेगी।। 46।।
खुला केश-बन्ध  वाणी, भी है अवरुद्ध हुई,
मुट्ठी  हुई  ढीली  लाज, गल  रही  द्रौपदी।
मौन धर्मराज  शीश, भाइयों का  झुका  देख,
क्रोध की  अगन  जैसी, जल  रही द्रौपदी।
इतनी बड़ी  सभा है, कोई  तो  बचाये  लाज,
खुद को दे झूठी  आस, छल  रही  द्रौपदी।
झटके  दुशासन  है, खींच  खींच  पट  देता,
अंगारों  पे  जैसे आज, चल  रही  द्रौपदी।। 47।।
टूटा नहीं अम्बर न, डोली  वसुधा भी अरे,
जलधि में ज्वार न ही, काँपता गिरीश है।
नयनों से हीन नृप,राजा सी ही प्रजा सारी,
ऐसे कायरों का ही तो,धाता जगदीश है।
आतुर नयन भरे, आस देखें चारो ओर,
कौरव सभा में झुका, सब का ही शीश है।
हाथों की पकड़ भी है, ढीली हुई जाती हाय,
इस  अबला  की आस,  बस  जगदीश है।। 48।।