द्रुपद सुता-खण्ड-30 / रंजना वर्मा
आज निराधार हो के, अनाश्रिता अनाथा हो,
जाना मैंने जगती पे, श्याम ही अनूप है।
अग जग छाया हुआ, सब में समाया हुआ,
दुखियों को भाया यही, घनश्याम रूप है।
योगियों का मुनियों का, कामियों का गुनियों का,
ज्ञानी अवगुनियों का, वही एक भूप है।
मेरे अपनों में बसा, मेरे सपनों में बसा,
मेरे नयनों में बसा, श्याम का स्वरूप है।। 88।।
झर झर झर झर, झड़ी आँसुओं की लगी,
बरखा निगोड़ी झरे, ऐसी बरसात है।
पीपल के पत्र सा है, कम्पित हृदय होता,
बदली के बीच जैसे, आतप-प्रभात है।
पतियों को देख पत, हीन सी द्रुपद सुता,
कहे-अपमान ये न, कोई नयी बात है।
मैं हूँ किन्तु नारी आज, दुखियारी औ बिचारी,
मेरे लिये हुई चारो, ओर काली रात है।। 89।।
श्याम श्याम साँवरे हे, सुनो राधिका के प्रिय,
राधा प्रिय राधा प्रिय, राधा प्रिय श्याम रे।
छोड़ प्रतिबन्ध द्वेष, द्वन्द्व अनुबन्ध सारे,
तोड़ सब नाते जपूँ, मात्र तेरा नाम रे।
छोड़ सारे काम नाम, जपती तुम्हारा श्याम,
जानती नहीं क्या होगा, मेरा परिणाम रे।
सच कहती हूँ नाथ ! इस जगती पे कहीं,
इस हतभागिनी का, नहीं कोई धाम रे।। 90।।