भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाईसा अचपळा घणा / मोहम्मद सद्दीक
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:36, 14 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहम्मद सद्दीक |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सुणनो ही चावै
तो सुण
काल थारै काळ हो
आज म्हारै काळ है
होणी होयां सरै।
सागै सागै हा
आगै लारै होग्या हां
परजातन्तर है।
न तो, जन्तर है। न मन्तर
पण आदमी अ‘र नेता में
घणो अन्तर।
आदमी तो नेता बणै
पण - नेता! आदमी बणै
अ‘र नई बणै
लुगायां पूत जणै
पण ऐड़ा जणै नईं जणै
पात पळै मूळ बळै
ठौड़ ठौड़ कळै ही कळै।
दिन ऊगतो दीसै बेगो ढळै
सामी अमावस री रात
च्यारूंमेर घात ही घात
किण नै धीजै - किण नै पतिजै
धीमी आंच पर
खीचड़ी ज्यूं खदबदीजै
दिन रात
घेटियो सी सूदी आ भोळी जनता
चमगूंगी होय
रोजीना तळी जरी है
दळीजी री है
फैरूं ही आं‘ सिरसै चोरां नै
धाप‘ अर धीज री है
समूची की समूची
कादै में कळीजरी है।