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मुक्तक-75 / रंजना वर्मा

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जो पायी जिंदगी किया संतोष जिया हम ने
दिये वक्त ने जख़्म उन्हें भी रोज सिया हम ने।
अब तो गठरी बांध कर्म की हूँ तत्पर बैठी
राम नाम पीयूषपात्र है रोज पिया हम ने।।

सावन आया श्याम सघन घन अम्बर में छाये
दादुर मोर पपीहा झिल्ली नूपुर झनकाये।
चली सुंदरी वर्षा सिर पर लिये भरी गागर
चले उताइल पांव गगरिया छलक छलक जाये।।

श्वेत वस्त्र पहने वसुंधरा या सनई के फूल
खूब रहे हैं हरे भरे पौधों, डाली पर झूल।
फूल लिये थोड़े से कर में सोचे शकुंतला
घर में इन्हें सजा दूँ जिससे समय बने अनुकूल।।

झुकीं हों लाज से अँखियाँ तो समझो आ गया सावन
खगों की भीगतीं पखियाँ तो समझो आ गया सावन।
लरजतीं काँपतीं बूँदे सिहरतीं पुष्पपंखुरियाँ
हों झूला झूलतीं सखियाँ तो समझो आ गया सावन।।

फूल सब यहीँ आये
याद हर कहीं आये।
है बहार भी आयी
आप ही नहीं आये।।