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मुक्तक-88 / रंजना वर्मा

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मधुर बहुत थे सन्त हमारे क्यों फिर कड़वा नीम हुए
लज्जित किया राम को किसने व्याकुल बहुत रहीम हुए।
नहीं चाहिये ऐसी श्रद्धा जो हम को बर्बाद करे
किया बहुत दुष्कर्म तभी तो कारागारी भीम हुए।।

जिधर देखती हूँ उधर जल ही जल है
बढ़ी बाढ़ ऐसी हुआ मन विकल है।
न पैरों के नीचे है धरती हमारे
मगर नाव मेरी बड़ी ही सबल है।।

डूब गया है गाँव झोंपड़ा डूब गया घर बार
जीना हुआ कठिन है अब हो क्या इसका उपचार।
पापी पेट नहीं पर माने सही न जाये भूख
लकड़ी के लट्ठों पर चूल्हा पकते दाने चार।।

थाम झूठ का हाथ ढोंग करते हैं सन्यासी बन के
मत विश्वास कभी करना मत भेद बताना जीवन के।
मन के भाव रहें मन मे ही जैसे गुप्त तिजोरी में
नैनों का जल सजे नयन में मूल्यवान सोना बन के।।

अगन का ताप सहकर स्वर्ण कुछ ज्यादा चमकता है
तिमिर में रातरानी पुष्प भी कितना महकता है।
दुखों की आग में जल कर प्रगट होते सभी सदगुण
हृदय दुर्बल विपद की आँधियों में ही बहकता है।।