भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूखी नदियाँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:44, 18 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूखी नदियाँ
नीर नहीं पाएँगे
नीर न मिला
गाछ कहाँ हों हरे
गाछ न हरे
नीड न बनाएँगे
नीड के बिना
बेचारे प्यारे पाखी
बोलो तो ज़रा
किस देश जाएँगे ।
निर्झर सूखे
कल -कल उदास
पाखी न कोई
आता है अब पास
रोता वसन्त
रो रहे हैं बुराँश
बचा खुचा जो
लील गई आग है
हरीतिमा का
उजड़ा सुहाग है
बहुत हुआ
अब तो जाग जाओ
छाँव तरु की
बूँद -बूँद नीर की
मिलकर बचाओ।
-0-