घने अँधेरे फिर राहें कँटीली, साथी न कोई हैं पलकें भी गीली । चलते रहे थके पाँव घायल पाएँगे कैसे लापता गाँव हम, की थी दुआएँ- पर न जाने कैसे शूल वे बनी , की केसर की खेती अभिशप्त हो वो बनी नागफनी। कैसे अपने? दुआओं से आहत, शाप यदि दो, करते हैं स्वागत । आँसू जो पोंछे वो लगता विषैला भाया सदा ही इन्हें मन का मैला । आओ समेटे वो शुभकामनाएँ नहीं लौटना- कहने को घर हैं ये हिंसक गुफाएँ । -0- </poem>