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ओ वियोगिनी ! / कविता भट्ट

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21
ओ निशिगन्धा !
सिखलाती हो तुम
अँधियारे में
मुस्काने का हुनर
अडिग रात भर
22
बोलो , हो कौन ?
कर्मयोगिनी मौन,
या हो प्रेयसी !
पलकें न झपकीं
रजनीगंधा तेरी
23
ओ वियोगिनी !
मंद-मंद मुस्काती
पीड़ा में भी यों,
शव पर पड़े ज्यों
हँसें माला के फूल।
24
न देख सके
मेरी आँखों में तुम
ये लाल डोरे,
जो दिखाते ही रहे
मेरी कशमकश।
25
आँसू सूखना
पीड़ा देता बहुत,
पानी नहीं है,
सागर है मन का
प्रश्न है जीवन का ।
26
शिला बनना
सहज बात नहीं
यों अहल्या का,
है पुरुष मद का-
निकृष्ट शिलालेख
27
देवता-ऋषि
छद्मवेश इंद्र व
गौतम ज्ञानी
किन्तु कटघरे में
रहेगी अहल्या ही।
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