Last modified on 16 जुलाई 2008, at 23:16

कुहराच्छादित-नभ / महेन्द्र भटनागर

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:16, 16 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=अनुभूत क्षण / महेन्द्र भटनागर...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पड़ा हुआ है कम्बल ओढ़े

पसरा-पसरा जागा अम्बर !

दिन चढ़ आया कितना; फिर भी
हिलने का लेता नाम नहीं,
केवल सोना - सोना; इसका,
किंचित भी कोई काम नहीं,
ठंड अधिक का किये बहाना
पक्का बना हुआ घन-चक्कर !
गर्म दुपहरी आने पर अब
लगता, सचमुच, कुछ हिला-डुला,
दूर क्षितिज की सीमाओं पर
दिखता कम्बल भी खुला-खुला,
तनिक क्षणों में, बाँधेगा लो
सारा अपना बोरा-बिस्तर !