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कटनी / कुमार मुकुल

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दिशाएँ बदलतीं चैती हवाएँ जब

बादलों के रहबच्चों पर

रहम करने लगती हैं

तब वे सुबह का इंतज़ार नहीं करते


तीसरा पहर बीतते न बीतते

हँसिए सा चांद झलकने लगता है

पूर्वी फलक पर

और हथेलियों में उनकी


दिशाओं का अंधेरा

कुत्तों की भूँक की रोशनी में

लाठियों से ठकठकाते

चले जाते हैं वे

खेत-बधारों की ओर


तब

गोरयाबाबा की लाट के नीचे

नाचते भूत, डिड़याते सांढ़ भैंसे

घुघुवाते वन-बिलाव

या

एकारी की नोंक की तरह तनीं

नहरों-सिवानों की ओट

उलझनें नहीं बनतीं उनकी

उन्हें लपटते चलते हैं वह

कथा की गठरियों में

जिसे

बच्चों की नींद के सिरहाने से

सरकाकर लपेट रखा है मुरेठे की तरह


बादलों की हरकतों से परेशान

जब पहुँचते हैं वे

गेहूँ की बालियों की कौंधों से भरे

धड़कते क्षितिजों पर

तब फलक से उतरकर चौथाई

चांद

अटक जाता है कलाईयों में

उनकी

जिसके प्रकाश में सूखी बालियाँ

छिटक-छिटककर

किनारे लगने लगती हैं


फिर

कब आता है सूरज

कब किरकिराने लगती है देह

मौसम की

कब

रोमकूपों से निकल-निकलकर

नमक

धूल से मिलकर

अकड़ जाता है

उनके चेहरों पर

नहीं जानते वह


फिर

युवा वक्षों में अदबदाते

कबूतरों की गूटर-गूँ जब

दोपहरी की किरीचों से कट-कटकर

गुम होने लगती हैं

तब आबादी की भूख को

कर्त्तव्यों की तरह

सरों पर साधते हैं वे

और उसकी छाँह में

पहुँच जाते हैं

घर की देहरी तक

और पटक देते हैं बोझ अपना

सपाट धरती की तरह फैली

अपने बच्चों की निगाहों में