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एक पड़ाव / राम शरण शर्मा 'मुंशी'

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दोपहर चढ़ रही है
धीरे-धीरे,
अन्धेरे के दानव धराशायी हो गए
कब के
श्वासें उमगती हैं, उठती हैं, तनती हैं,
समवेत स्वर
ऊपर उठता है
धीरे-धीरे !
आत्मा का ताप तपता है
स्नायु, माँस,पेशियाँ — मंज़िलें गिनती हैं,
आगे, और आगे
अनागत की चौड़ी चौपाल पर
यात्राएँ अनगिनत
            थमती, ठहरती हैं,
सुस्थिरता बढ़ती है
धीरे-धीरे !