मौन कब तक रहे प्राण की वेदना
गीत लिख कर उन्हे गुनगुनाते रहे
कंठ तक आह आकर रुकी रह गई
तार स्वर के मगर झनझनाते रहे
नभ नयन में घिरी आंसुओं की घटा
आंख भीगी हुई डबडबाने लगी
फिर बिखरने लगी हास की पूर्णिमा
वेदना चांदनी में नहाने लगी
रात छूने लगी जब तिमिर तूलिका
तारकों के दिए झिलमिलाते रहे
मौन कब तक रहे प्राण की वेदना
गीत लिख कर उन्हे गुनगुनाते रहे
जुगनुओं ने लिखी सूर्य की एक कथा
मन जलाए रहा आरती आग की
पास आने लगी जब उदासी कभी
मन जगाए रहा रागिनी फाग की
भावना भंग की भर गई मस्तियाँ
और पीकर नई धुन बनाते रहे
मौन कब तक रहे प्राण की वेदना
गीत लिख कर उन्हे गुनगुनाते रहे
ओस बनकर कहीं हँस उठी वेदना
दर्द का यह हिमाचल तरल हो गया
बांसुरी जब बजी प्राण के तीर पर
स्वयं प्याला गरल का सरल हो गया
काल का व्याल तो फन उठाए रहा
आंख तब भी मरण से मिलाते रहे
मौन कब तक रहे प्राण की वेदना
गीत लिख कर उन्हे गुनगुनाते रहे...