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... खुले दिल से / सुरेश स्वप्निल

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लोग क्या ख़ूब ग़मगुसार<ref>दुख के सहभागी</ref> रहे
मर्ग़<ref>मृत्यु</ref> तक जान पर सवार रहे

थी कमी इस क़दर दुआओं की
हर जगह हम ही शर्मसार<ref>लज्जित</ref> रहे

फँस गए हैं अजीब मुश्किल में
ग़म रहे या कि रोज़गार रहे

निभ गई चार दिन ख़िज़ाँ<ref>पतझड़</ref> से भी
चार दिन मौसमे-बहार रहे

तंज़<ref>व्यंग्य</ref> यूँ हो कि चीर दे दिल को
लफ़्ज दर लफ़्ज धारदार रहे

कह गए बात जो खुले दिल से
वो सभी ज़ुल्म के शिकार रहे

मुल्क बर्बाद हो तो हो जाए
शाह का शौक़ बरक़रार रहे

क़ब्र से भी चुकाएँगे क़िश्तें
हम अगर और क़र्ज़दार रहे

थे ज़मीं पर भी आपके मेहमाँ
ख़ुल्द<ref>स्वर्ग</ref> में भी किराय:दार रहे !

आएँ या भेज दें फ़रिश्तों को
क्यूँ उन्हें और इन्तज़ार रहे !

शब्दार्थ
<references/>