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पूरब दरका /राम शरण शर्मा 'मुंशी'

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फिर वही रात
फिर वही गली
फिर वही ज़िन्दगी
जली-जली,
फिर आँगन वही
दबा-सिकुड़ा
नभ बेरंगा
निचुड़ा-निचुड़ा,

दो-चार नखत
मन मारे से
अन्धे-बहरे
बजमारे-से,
फिर वही हवा
गुमसुम-गुमसुम
कहती : घुटते
देखो हम-तुम,

खटिया की पाटी
वही-वही
बातें सारी
अनकही-कही,
आँखों के कोये
खुले-खुले
सपने बिखरे सब
घुले-घुले,

फिर वही रात
ढलकी-ढलकी
चान्दनी तपी
उफनी, छलकी !

फिर दरका पूरब —
बही धार,
लाली से
धरती का सिंगार,
रंग भरे व्योम के
ओर-छोर
पूरब जागा
दिशि रोर घोर !

यह लाली —
जैसे नई ज्वाल
नूतन लय जीवन में
जीवन की नई ताल !