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बरसा के निर्मल मोती / मनोज कुमार ‘राही’

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बरसा के निर्मल मोती टपकै छै रसेंरसें,
घटा छै आकाश घन घोर,
चमकै छै कड़कै छै रही बिजुरिया,
बतास बहै छै बड़ी जोर

झुमै छै, नाचै छै गाछ रे वृक्षवा,
चुमै छै धरतीया के होय विभोर,
जनजीवन सभ्भे खुशी सें पागल,
जंगल में नाचै छै झुमीझुमी मोर

हर्षित किसनवाँ देखै छै आकाश के,
सुखवा के दिनवाँ के शुरू होलै दौर,
घरवा के रानियाँ पुलकित भई विह्वल,
सबहीं बुतरू करे नाचीनाची शोर

खेत रे पथार भरीये गेलै सभे दिशें,
न्दिया उमड़लोॅ चललै सागर के ओर,
कंधवा पर कुदाल लै चललै किसनवाँ,
खेतवा के पनियाँ से करै लेॅ बलजोर