भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमानुषिक / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:52, 18 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=आहत युग / महेन्द्र भटनागर }}आज ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर

खंडित हुआ विश्वास,
आज फिर
धूमिल हुई
अभिनव ज़िन्दगी की आस !

ढह गये
साकार होती कल्पनाओं के महल !
बह गये
अतितीव्र अतिक्रामक
उफनते ज्वार में,
युग-युग सहेजे
भव्य-जीवन-धारणाओं के अचल !

आज छाये; फिर
प्रलय-घन,
सूर्य- संस्कृति-सभ्यता का
फिर ग्रहण-आहत हुआ,
षड्यंत्रों-घिरा
यह देश मेरा
आज फिर
मर्माहत हुआ !

फैली गंध नगर-नगर
विषैली प्राणहर बारूद की,
विस्फोटकों से
पट गयी धरती,
सुरक्षा-दुर्ग टूटे
और हर प्राचीर
क्षत-विक्षत हुई !

जन्मा जातिगत विद्वेष,
फैला धर्मगत विद्वेष,
भूँका प्रांत-भाषा द्वेष,
गँदला हो गया परिवेश !
सर्वत्र दानव वेश !
घुट रही साँसें
प्रदूषित वायु,
विष-घुला जल
छटपटाती आयु !