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कैक्टस अर हूँ / लक्ष्मीनारायण रंगा

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मां कैवे
‘‘घणो अपसुगणी हुवै
घर में थोर उगाणो’’

परम्परावां‘र आधुनिकता रो
वरणसंकर हूं
कैक्टस खनै खड्यो सोचूं
क‘ इणनै बार फैंकूं‘क नीं
क‘ कैक्टस ताना देवतो मुळक‘र
जुगां सूं कांटा सिंयोड़ी
जुबान खोली
‘‘म्हारा कांटा
इत्ता जैरीला कोनी
जित्ता थाणी
रूढ़यां‘र परम्परावां रा,

म्हारा पंजा
इत्ता जानलेवणिया तो कोनी
जित्ता थारां अनुसन्धाणां रा
हूं इत्तौ
सरब नासी तो कोनी
जित्तो थांरौ सभ्य जुग रा जुद्ध,

म्हारै हिरदै में
घिरणा-बैर-हिंसा रो
बो जैर तो को बैवे नी

जिको
हर समै थारी रगां में
बैवे खून बण‘र

मनै लाग्यो
चांद मंगळ री ऊंचाया पर
उडण वाळे
पताळ री गैराया नापण वाळो

इत्ता धरमां
इत्ता सिद्धान्तां
इत्ता अनुसंधानां‘र

इत्ती सदियां रै
पगोथियां सूं
सभ्यता रै सिखर पर चढियोड़ो

हूं मिनख
इण कांटेदार
कैक्टस रै सामै
एक बावनियो हूं।’’