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रेत (तीन) / राजेन्द्र जोशी

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आ रेत कठै सूं आवै है
आंधी अर तूफान रै भेळी
हवा तेज भल लावै है
जठै तांई जावै, पग जमावै
रिस्ता नूंवां बणावै रेत।

रिस्तो बणावै रेत आपरो
छाती मांय बैठावै है
सगळी छाती हरी-भरी है
नीं जतावै हक आपरो
कीं-न-कीं उपजावै है।

नीं करै सिकायत कदैई
कीं नीं लागै रिस्तै में मिनख रै
फेरूं ई रच्योड़ी-बस्योड़ी रैवै
रेत खेजड़ी रै अंग-अंग मांय।
मिनख रै जीवण मांय पसर्योड़ी
आखै डील रै चिप जावै
सदा नीं रैवै, चिपै अर उतरै
पण हेत करै मिनख सूं
अर मिनख रेत सूं।

निवण जद म्हैं करूं रेत नै
थम जावै
म्हारै माथै
गैणां बण जावै
म्हारै आबरू
सोनै बरगी रेत
जीवण रो रिस्तो है इण रेत सागै।