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मूरत अधूरी / महेन्द्र भटनागर
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तय है कि अब यह ज़िन्दगी
मुहलत नहीं देगी
अब और तुमको ज़िन्दगी
फुरसत नहीं देगी !
गुज़रे दिनों की याद कर, कब-तक दहोगे तुम ?
विपरीत धारों से उलझ, कितना बहोगे तुम ?
रे कब-तलक तूफ़ान के धक्के सहोगे तुम ?
यों खेलने की, ज़िन्दगी
नौबत नहीं देगी,
अब और तुमको ज़िन्दगी
क़ूवत नहीं देगी !
साकार हो जाएँ असम्भव कल्पनाएँ सब,
आकार पा जाएँ चहचहाती चाहनाएँ सब,
अनुभूत हों मधुमय उफनती वासनाएँ सब,
यह ज़िन्दगी ऐसा कभी
जन्नत नहीं देगी,
यह ज़िन्दगी ऐसी कभी
किस्मत नहीं देगी !