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हाइकु 83 / लक्ष्मीनारायण रंगा
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ओ जगत है
रात भर बसेरो
थारो न म्हारो
ओ समंदर
उतार लायो चांद
धरती माथै
कित्ता बस्या है
मिनख में मिनख
खुद नीं जाणै