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विपत् / महेन्द्र भटनागर
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आख़िर,
गया थम !
उठा-
चीखता
तोड़ता - फोड़ता
लीलता
क्रुद्ध अंधड़ !
तबाही.... तबाही.... तबाही !
इधर भी; उधर भी
यहाँ भी; वहाँ भी !
दीखते
खण्डहर.... खण्डहर.... खण्डहर,
अनगिनत शव !
सर्वत्र निस्तब्धता,
थम गया रव !
दबे,
चोट खाये,
रुधिर - सिक्त
मानव... मवेशी... परिन्दे
विवश तोड़ते दम !
भयाक्रांत सुनसान में
सनसनाती हवा,
खा गया
अंग-प्रति-अंग
लकवा !
अपाहिज
थका शक्ति-गतिहीन जीवन,
विगत-राग धड़कन !
भयानक क़हर
अब गया थम,
बचे कुछ
उदासी-सने चेहरे नम !
सदा के लिए
खो
घरों-परिजनों को,
बिलखते
बेसहारा !
असह
कारुणिक
दृश्य सारा !
चलो,
तेज अंधड़
गया थम !
गहर गमज़दा हम !