भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छलक न जाना / रंजन कुमार झा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:33, 1 अगस्त 2018 का अवतरण
सुनो हृदय के पीर दृगों से
गालों पर तुम छलक न जाना
समझ रहे तुम आँसू जिनको
वो सबके सब गंगाजल हैँ
हृद-मंदिर के देवों के सिर
चढ़ने वाले नीर धवल हैं
इसे भाव की स्याही में भर
नव गीतों के बोल सजाना
पत्थर दिल दुनिया वाले सब
मोल भला क्या इनका जाने
एक बूँद जो गिरी धरा पर
रो जाएँगे सब दीवाने
तुम्हें कसम है दीवानों की
इन बूँदों की लाज बचाना
गालों पर गिर जाएँ ये तो
लोग न जाने क्या बोलेंगे
होगी दुनिया में बदनामी
राज सभी जब वे खोलेंगे
ये हैं मोती की वो लड़ियाँ
जिन्हें हार को जीत बनाना