भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धरती के गहना / अरुण हरलीवाल
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:36, 2 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण हरलीवाल |अनुवादक= |संग्रह=कह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आके धनखेता से पवना रे!
की गावे, नचे बिचे अँगना रे!
ए सजनी, बूझऽ तनी तूँ एकर भासा;
कह रहलो, पुर जइतो तोहर सभे आसा।
दूधीारल डुब्बा में डूबल हे खाजा,
चान सरद पुनिया के, अमरित चुआ जा!
सच होवत अँखजोगल सपना रे!
घरे-घरे बाँटव हम बयना रे!
तोहरे पसेना से तिरपित हे धरती;
कम खाना, गम खाना तोहर परकिरती।
मेहनत के दूता तूँ, धरती के पूता;
छप्पर नइँ, रोटी नइँ, धोती-नइँ-जूता।
पर, तूँही धरती के गहना रे!
मिस्री-सन मीठ तोहर बचना रे!