भोर होते _
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं, 
उठाती हैं मुझे! 
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं, 
नव-नव स्वप्न-लोकों में 
घुमाते हैं मुझे! 
दिन भर _
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है 
अनंग-अनंत नीलाकाश! 
रात भर _
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी 
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है! 
अंक में सोने बुलाती है! 
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे? 
धरा - इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?