भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यों ग़मे-रफ्तगां करे कोई / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:35, 18 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी |अनुवादक= |संग्रह=बर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यों ग़मे-रफ्तगां करे कोई
फ़िक्रे-वामांदगां करे कोई

तेरे आवारगाने-ग़ुरबत को
शामिले-कारवां करे कोई

ज़िन्दगी के अज़ाब क्या कम है
क्यों ग़मे-लामकां रहे कोई

दिल टपकने लगा है आंखों से
अब किसे राजदां करे कोई।

इस चमन में बरंगे-निकहते-गुल
उम्र क्यों राएगां करे कोई

शहर में शोर, घर में तन्हाई
दिल की बातें कहां करे कोई

ये खराबे ज़रूर चमकेंगे
एतबारे-ख़िजां करे कोई।