भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नित नयी सोच में लगे रहना / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:43, 18 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी |अनुवादक= |संग्रह=बर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नित नयी सोच में लगे रहना
हमें हर हाल में ग़ज़ल कहना

सहने-मकतब में हमसिनों के साथ
संगरेंजों को ढूंढते रहना

घर के आंगन में आधी आधी रात
मिल के बाहम कहानियां कहना

दिल चढ़े छांव में बबूलों की
रमे-आहू को देखते रहना

अब्रपारों को, सब्ज़ाज़ारों को
देखते रहना सोचते रहना

शहर वालों से छुप के पिछली रात
चांद में बैठकर ग़ज़ल कहना

रेत के फूल, आग के तारे
ये है फ़सले-मुराद का गहना

सोचता हूँ कि संगे-मंज़िल ने
चांदनी का लिबास क्यों पहना

क्या ख़बर कब कोई किरन फूटे
जागने वालो जागते रहना।