भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जल्वा-सामां है रंगो-बू हमसे / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:30, 19 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी |अनुवादक= |संग्रह=दी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जल्वा-सामां है रंगो-बू हमसे
इस चमन की है आबरू हमसे

दर्स लेते हैं खुशखरामी का
मौजे-दरिया-ओ-आबे-जू हमसे

हर सहर बारगाहे-शबनम में
फूल मिलते हैं बां-वज़ू हमसे

हमसे रौशन है कारगाहे-सुख़न
नफ़से गुल है मुशकबू हमसे

शब की तन्हाइयों में पिछले पहर
चांद करता है गुफ्तगू हमसे

शहर में अब हमारे चर्चे हैं
जगमगाते हैं काखो-कू हमसे।